Tuesday 28 January 2014

हमारे हाइकु संग्रह "शब्दों के पुल" की समीक्षा




   जीवन की धूप और छाँव है
                          'शब्दों के पुल'




दोस्तों...आज ही 'सारिका मुकेशजी की लिखी नई पुस्तक 'शब्दों के पुल' (प्रकाशक-जाह्नवी प्रकाशनदिल्ली) प्राप्त हुई है. हिन्दी कविता में नवीन प्रयोगवादी कवियों के द्वारा जापान से जिस नई विधा हाइकुका पदार्पण हुआ, उसी विधा में यह पुस्तक अपने रंग बिखेरती है .                        
अपनी भावनाओं को कम से कम शब्दों में सार्थकता से पिरोना काफी कठिन है परन्तु सारिका मुकेश जी ने इस चुनौती को स्वीकार करते हुए इस विधा को नए आयाम प्रदान किये है. जहाँ उनके कुछ हाइकु परंपरागत कविता को नई दिशा प्रदान करते है वही दूसरी और कुछ हाइकु मानव स्वभाव का सफल चित्रण करते प्रतीत होते है.
कुल मिलाकर जीवन की धूप और छाँवदोनों कोमात्र तीन पंक्तियों में बांधकर सारगर्भित रूप से प्रस्तुत किया गया है जिसकी जितनी प्रशंसा की जाए कम है. इस सफलता पर मेरी और से उन्हें बहुत बहुत शुभकामनाएं.
आशा है कि भाविष्य में भी वे इस प्रकार के नवीन प्रयोगों से कविता को ऊँचाइयाँ प्रदान करेंगे......
उनकी पुस्तक 'शब्दो के पुलसे कुछ हाइकु – 

                         पूरब दिशा,
                         प्रातः हो उठी लाल,
                         निकला सूर्य.
                          -------------
                         ठगता रहा,
                         माया का संसार,
                         जन्मों-जन्मों से
                         ----------------
                         चलती यादें
                         मस्तिष्क पटल पे
                         चलचित्र सी
                         ----------------
                         लगे अक्सर
                         आ पहुंची निकट
                          जीवन संध्या
                         -----------------

---एक बार फिर से सारिका मुकेश जी को बहुत बहुत बधाई...


              -देव निरंजन
              (लेखक एवं कवि)
              देवास (म.प्र.)
                                                     21 जनवरी 2014

Sunday 26 January 2014

'शब्दों के पुल' की समीक्षा




मर्मस्पर्शी हाइकुओं का संकलन है:
शब्दों के पुल



   
        अभी एक सप्ताह पूर्व डॉ. सारिका मुकेश द्वारा रचित एक हाइकु संग्रह मिला, जिसका नाम था शब्दों के पुल। 83 रचनाओं से सुसज्जित 112 पृष्ठों की इस पुस्तक को जाह्नवी प्रकाशन, दिल्ली द्वारा प्रकाशित किया गया है। जिसका मूल्य रु.200/- रखा गया है। जनसाधारण की सोच से परे इसका आवरण चित्र Creative Art ने तैयार किया है।

       इस हाइकु संग्रह को आत्मसात् करते हुए मैंने महसूस किया है कि इसकी रचयिता डॉ. सारिका मुकेश अपने आप में एक शब्दकोष हैं। चाहे उनकी लेखनी से रचनाओं के रूप में क्षणिकाएँ निकलें या हाइकु निकलें वह अपने आप में किसी कविता से कम नहीं होती है।
       कवयित्री ने अपनी बात में लिखा है-
हाइकु स्वयं में एक कविता है। इसमें कहे से अधिक अनकहा होता है, जिसके अर्थ पाठक अपनी पैनी दृष्टि और सूझ-बूझ से खोजकर तराशता है। हाइकु मूलतः प्रकृति से जुड़े रहे हैं परन्तु मनुष्य भी इसी प्रकृति का हिस्सा है और वैसे भी साहित्य समाज का दर्पण है और समाज व्यक्ति/मनुष्य से बनता है, सो मनुष्य की अनदेखी करना कदापि उचित नहीं होगा। इसलिए मनुष्य को केन्द्र में रखकर खूब हाइकु लिखे जा रहे हैं।

जीवन जैसे
दूब की नोक पर
ओस की बूँद
--
क्यों भूले सत्य
भूल गये ईश्वर
अहंकार में
      
        कवयित्री ने अपने हाइकु संग्रह “शब्दों के पुल” का श्रीगणेश वन्दे चरण से किया है-

वन्दे चरण
तुझको समर्पण
श्रद्धा सुमन
--
ओ मेरे कान्हा
रँग दे चुनरिया
अपने रँग
--
उम्र तमाम
बसो मेरे मन में
ओ घनश्याम
       
           महाभारत के परिपेक्ष्य में कवयित्री ने नारी की स्थिति पर प्रकाश डालते हुए कुछ इस प्रकार से हाइकुओं में बाँधा है-

महाभारत
अन्याय के खिलाफ
बिछी बिसात
--
पाँच पाण्डव
’ अकेली द्रोपदी
करती तृप्त
--
स्त्री की नियति
कभी अंकशायिनी
तो कभी जूती
      
     प्रकृतिचित्रण में भी डॉ.सारिका मुकेश की कलम अछूती नहीं रही है। संध्याकाल को उन्होंने अपने हाइकुओं में शब्द देते हुए लिखा है-

दिन में थक
समुद्र की गोद में
छिपता सूर्य
--
लौटते पंछी
अपने घोंसले में
बच्चों के पास
--
हसीन शाम
उतरी धरा पर
छलके जाम
      
               आयु की शाश्वत परिभाषा कवयित्री ने उम्र और हमशीर्षक से कुछ इस प्रकार दी है-

उम्र की गाड़ी
दौड़ती प्रतिपल
मृत्यु की ओर
--
उम्र बढ़ती
घटती प्रतिपल
यह जिन्दगी
--
जन्मदिन क्यों?
होता एक बरस
आयु का कम
       
           डॉ.सारिका मुकेश ने अपने हाइकु संग्रह “शब्दों के पुल” में रोजमर्रा की चर्या में पाये जाने वाले आशा-प्रत्याशा, सोचता मन, मित्र, पंछी,आकांक्षा, सूरज, पानी पर लकीरें, आदमी, आँसू, अज्ञानता, विसंगति, तूफान, परिवर्तन, बेवफाई, विदा, रामायण, राजनीति, जीवनसंध्या, नारी आदि विविध विषयों पर अपनी सहज बात कही है।
          अन्त में इतना ही कहूँगा कि डॉ. सारिका मुकेश बहुमुखी प्रतिभा के धनी हैं और उनकी हाइकुकृति “शब्दों के पुल” एक पठनीय ही नहीं अपितु संग्रहणीय काव्य पुस्तिका है।
          मेरा विश्वास है कि शब्दों के पुल” हाइकुसंग्रह सभी वर्ग के पाठकों के दिल को छूने में सक्षम है। इसके साथ ही मुझे आशा है कि यह हाइकु संग्रह समीक्षकों की दृष्टि से भी उपादेय सिद्ध होगा।
शुभकामनाओं के साथ!
समीक्षक
 (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)
कवि एवं साहित्यकार 
टनकपुर-रोडखटीमा
जिला-ऊधमसिंहनगर (उत्तराखण्ड) 262 308
 E-Mail .  roopchandrashastri@gmail.com
फोन-(05943) 250129
मोबाइल-07417619828



शब्दों के पुल




शब्दों के पुल

आड़ी-तिरछी
जीवन की डगर
सँभलकर
***    
जुड़ें हैं हम
विविध होकर भी
ज्यों मालगाड़ी
***    
मिलाए छोर
जीवन और मृत्यु
शब्दों के पुल

***     

Friday 24 January 2014

तेरी स्मृतियाँ



तेरी स्मृतियाँ



बिखरे पत्र
उदास तन्हाइयाँ
सूखे गुलाब
       ***
तेरी स्मृतियाँ
ज्यों अंतहीन गुफ़ा
काटे ना कटे
       ***
आस के पंछी
यादों के दरख़्त
घट में प्राण

       ***

Thursday 23 January 2014



रामायण


करने पूरा
पिताजी का वचन
वो गए वन
       ***
ये मानो लला
मुकद्दर का लिखा
ना टाले टला
       ***
पंचवटी से
माँ सीता का हरण
करे रावण

       ***

Wednesday 22 January 2014

तुम हो एक वृक्ष



तुम हो एक वृक्ष



संग तुम्हारा
ज़ेहन में अब भी
बसे हैं किस्से
   ***
ना भूला कभी
वो छलकती हँसी
निर्मल छवि
   ***
जन्मों का साथ
तुम हो एक वृक्ष
मैं एक डाली

   ***

Thursday 16 January 2014

रख विश्वाश



रख विश्वाश





नया आकाश
नयी संभावनाएं
नयी उड़ान
       ***
बनो सशक्त
लो मुट्ठी में आकाश
खूँदो जहान
       ***
रख विश्वाश
हौंसलों में उड़ान
छू ले आकाश

       ***

Wednesday 15 January 2014

दीप बन के जलूँ



                               दीप बन के जलूँ





पूजा-अर्चना
मन को करें शुद्ध
दें नयी शक्ति
        ***
बनूँ तो बनूँ
आरती का दीपक
तेरे थाल में
       ***
बन के दीप
जलूँ तेरे मन में
यही कामना

       ***

Thursday 9 January 2014

5 हाइकु





डूबता सूर्य
मदहोश-सी शाम
कैसा अंजाम

दिन का कत्ल
रोज करे सूरज
तो भी महान

उम्र की गाड़ी
दौड़ती प्रतिपल
मृत्यु की ओर

लगाए मन
"और-औररटन
पपीहा बन

कविता जन्मीं
पली और बढ़ी भी
मेरे मन में